महात्मा गाँधी का एकमात्र सपना कौन सा था । जो आज भी अधूरा है ।
सुनीता अग्रवाल जयपुर
महात्मा गांधी का एक ही सपना था कि सारे भारत के लोग खादी पहनने उनका मानना था कि खादी पहनने से जाति धर्म आदि के शब्द भेद मिट जाएंगे । लेकिन उनके नक्शे कदम पर चलना सबके लिए क्या इतना आसान था ? क्या ऐसी एकता संभव थी ? राष्ट्र के लोग उनके जैसा इकहरा किसानी बस्तर नहीं पहन सकते थे सब ऐसा चाहती भी नहीं थे ।
आइए देखें कि गांधी के आह्वान करने पर लोगों ने कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त की :
■ इलाहाबाद के सबसे सफल वकील और राष्ट्रवादी नेता मोतीलाल नेहरू ने अपना कीमती पश्चिमी सूट त्याग कर हमेशा के लिए हिंदुस्तानी धोती कुर्ता अपना लिया। लेकिन उनकी पोशाक मोटे खुरदरे कपड़े की नहीं बनी होती थी । बल्कि बहुत बारीक कपड़े की बनी होती थी।
■ जाति प्रथा के कारण सदियों से वंचित वर्गों का पश्चिमी शैली के कपड़ों के प्रति आकर्षण सहज और स्वाभाविक था । इसलिए बाबा साहब अंबेडकर जैसे राष्ट्रभक्त हमेशा पाश्चात्य शैली का सूट पहने रहे । दलित वर्ग के बहुत से लोग 1910 के दशक में सार्वजनिक कार्यक्रमों में जूते मोजे और थ्री पीस सूट पहने लगे जो कि उनकी तरफ से आत्मसम्मान की राजनीतिक अभिव्यक्ति थी।
■ 1928 में महाराष्ट्र के एक महिला ने महात्मा गांधी को लिखा साल भर पहले मैंने आपको हर किसी के खादी पहनने की जरूरत पर बोलते सुना और हम सब ने खादी पहनने का फैसला कर लिया लेकिन हम बहुत गरीब परिवार से है हमारे पति का कहना है कि खादी बहुत महंगी है मराठी होने के नाते मैं 9 गज लंबी साड़ी तो पहनती हूं और हमारे बड़े बुजुर्ग उसे घटाकर 6 गज करने की बात पर कभी राजी नहीं होंगे ।
■ कमला नेहरू और सरोजिनी नायडू जैसी बहुत सी महिलाएं भी हाथ के बुने सफेद मोटे कपड़ों की जगह रंगीन में डिजाइन दार साड़ियां पहनती थी
हम निष्कर्ष की बात करें तो इस तरह के पहनावे में बदलाव का इतिहास एक तरफ तो सांस्कृतिक रुचि और सौंदर्य की परिभाषा के बदलाव से जुड़ा है । वहीं दूसरी ओर आर्थिक व सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व राजनीतिक संघर्ष के मामलों में भी उलझा हुआ है इसलिए वेशभूषा में जब भी कभी परिवर्तन दिखाई दे तो हमें पूछना चाहिए की इन परिवर्तनों के क्या कारण है इनमें समाज हमें उसके इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है इनमें हमें रुचि और टेक्नोलॉजी प्रौद्योगिकी बाजार और उद्योगों में हुए इन परिवर्तनों के बारे में पता चलता है।